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राष्ट्र कवियत्री ःसुभद्रा कुमारी चौहान की रचनाएँ ःबिखरे मोती


पापी पेटः

4)
लाठी चार्ज का हुक्म देने के बाद ही मजिस्ट्रेट राय साहेब कुन्दनलाल जी को बड़े साहब का एक अर्जेन्ट रुक्का मिला। साहब ने उन्हें फ़ौरन बंगले पर बुलाया था। इधर लाठी चार्ज हो ही रहा था कि उधर वे मोटर पर सवार हो बड़े साहब के बंगले पहुँचे। काम की बातों के समाप्त हो जाने पर, उन्हें लाठी चार्ज कराने के लिए धन्यवाद देते हुए बड़े साहब ने इस बात का भी आश्वासन दिया कि राय बहादुरी के लिए उनकी शिफारिस अवश्य की जायगी। बड़े साहब का उपकार मानते हुए राय साहब कुन्दनलाल अपने बंगले लौटे। उन निहत्थों पर लाठी चलवाने के कारण उनकी आत्मा उन्हीं को कोस रही थी। हृदय कहता था कि यह बुरा किया। लाठी चार्ज बिना करवाए भी तो काम चल सकता था। आखिर सभा हो ही जाती तो अमन में क्या खलल पड़ जाता? वे लोग सभा में किसी से मारपीट करने तो आए न थे। फिर मैंने ही उन्हें लाठी से पिटवा कर कौन सा भला काम कर डाला? किन्तु दिमाग ने उसी समय रोक कर कहा- 'यहाँ भले-बुरे का सवाल नहीं है, तुमने तो अपना कर्त्तव्य पालन किया है। स्वयं भगवान कृष्ण ने कर्त्तव्य के लिए निकट सम्बन्धियों तक को मारने का उपदेश अर्जुन को दिया था। फिर तुम्हारा कर्त्तव्य क्या है? अपने अफसर की आज्ञा का पालन करना। आतंक जमाने के लिए लाठीचार्ज कराने का तुम्हें हुक्म था। तुम सरकार का नमक खाते हो, उसकी आज्ञा का उल्लंघन नहीं कर सकते। आज्ञा मिलने पर उचित-अनुचित का विचार करने की ज़रूरत ही नहीं। स्वयं धर्म-नीती के ज्ञाता पितामह भीष्म ने दुर्योधन का नमक खाने के ही कारण, अर्जुन का पक्ष सत्य होते हुए भी दुर्योधन का ही साथ दिया था। इसी प्रकार तुम्हें भी अपना कर्त्तव्य करना चाहिए, नतीजा बुरा हो चाहे भला।'
पर फिर उनके हृदय ने काटा, 'न जाने कितने निरपराधियों के सिर फूटे होंगे?' दिमाग ने कहा, 'फूटने दो। जब तक सरकार की नौकरी करते हो, तब तक तुम्हें उसकी आज्ञा का पालन करना ही पड़ेगा, और यदि आज्ञा का पालन नहीं कर सकते हो तो ईमानदारी इसी में है कि नौकरी छोड़ दो। माना कि आखिर ये लोग स्वराज्य के लिए ही झगड़ रहे हैं। उनका काम परमार्थ का है; सभी के भले के लिए है, पर किया क्या जाए? नौकरी छोड़ दी जाए तो इस पापी पेट के लिए भी तो कुछ चाहिए? हमारे मन में क्या देश-प्रेम नहीं है? पर खाली पेट देश-प्रेम नहीं हो सकता। आज नौकरी छोड़ दें तो क्या स्वराज्य वाले मुझे 600 रु. दे देंगे? हमारे पीछे भी तो गृहस्थी लगी है, बाल-बच्चों का पेट तो पालना ही होगा।' इसी प्रकार सोचते हुए वे अपने बंगले पहुँचे।
घर पहुँचने पर मालूम हुआ कि पत्नी अस्पताल गयी है। लाठीकाण्ड में लड़के का सिर फट गया है। उनका कलेजा बड़े वेग से धड़क उठा। उनका एक ही लड़का था। तुरंत ही मोटर बढ़ायी, अस्पताल जा पहुँचे। देखा कि उनकी स्त्री गोपू को गोद में लिए बैठी आँसू बहा रही है। गोपू के सिर में पट्टी बँधी है और आँखें बंद हैं। उन्हें देखते ही पत्नी ने पीड़ा और तिरस्कार के स्वर में कहा- 'यह है तुम्हारे लाठीचार्ज का नतीजा।'
उनका गला रुँध गया और आँसू भी वेग से बह चले। राय साहब कुन्दनलाल के मुँह से एक शब्द भी न निकला। इतने ही में डॉक्टर ने आकर उन्हें सांत्वना देते हुए कहा- 'कोई खतरे की बात नहीं है। घाव गहरा ज़रूर है पर इससे भी गहरे-गहरे घाव भी अच्छे हो जाते हैं, आप चिंता न कीजिए।'
राय साहब ने पत्नी से पूछा- 'आखिर तुमने इसे वहाँ जाने ही क्यों दिया?'
पत्नी ने कहा- 'तो मुझसे पूछ के ही तो वहाँ गया था न?'
रात भर गोपू बेहोश रहा और दूसरे दिन भी बेहोशी दूर न हुई। दूसरे दिन 11 बजे दिन से जेल में मुकदमा होने वाला था। परन्तु न्यायधीश ठीक समय पर न पहुँच सके। आज सज़ा सुनानी थी। मामला था, एक तेरह साल की बालिका को बेचने के लिए भगा ले जाने का, जुर्म साबित हो चुका था। न्यायधीश के द्वारा उसे छः महीने की सख्त क़ैद सज़ा दी गयी थी।
फैसला सुनाकर न्यायधीश महाशय जेल आए। कोतवाल और राय साहब कुन्दनलाल की गवाही हो जाने पर अभियुक्तों में से एक दो साल की सख्त क़ैद और 2000) जुरमाना, दूसरे को डेढ़ साल की सख्त क़ैद और 1500) जुरमाना, तीसरे को एक साल की सख्त क़ैद और 500) जुरमाना की सज़ा दे दी गयी। अभियुक्तों ने मुकदमों में किसी प्रकार का भाग नहीं लिया और न पेशी ही बढ़वायी, इसलिए मुकदमा करीब एक घंटे में ही समाप्त हो गया।
तीनों अभियुक्त प्रतिष्ठित सज्जन थे और राय साहब की जान-पहिचान के थे। मुकदमा ख़त्म हो जाने पर राय साहब ने उनसे माफ़ी मांगते हुए कहा, 'क्षमा करना भाई, इस पापी पेट के कारण लाचार हैं, वरना क्या हमारे दिल में देश-प्रेम नहीं है? यह कहकर उन्होंने अपनी आत्मा को संतोष दे डाला और जल्दी-जल्दी अस्पताल आए। गोपू की हालत और भी ज़्यादा खराब हो गयी थी। उसकी नाड़ी क्षीण पड़ती जा रही थी। राय साहब के पहुँचने पर उसने पहिली ही बार आँखें खोलीं। उसके मुँह पर हलकी-सी मुस्कराहट थी। धीमी आवाज़ से उसने कहा- 'बन्दे मा..म' की ध्वनि नहीं निकल पायी; 'म' के साथ ही उसका मुँह खुला रह गया, और आँखें सदा के लिए बंद हो गयीं। उसकी माता चीख मारकर लाश पर गिर पड़ी। राय साहब के शून्य हृदय में बार-बार प्रश्न उठ रहा था, 'यह सब किसके लिए?' और मस्तिष्क से प्रतिध्वनि उसका उत्तर दे रही थी- 'पापी पेट के लिए।'

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